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Saturday, March 6, 2010

गरीबों में भगवान बसते है |

मैंने जब से होश संभाला, पढता आया - बिभिन्न धर्म ग्रंथो में, सुनता आया - धार्मिक परिचर्चाओ में, प्रवचनों में, यहाँ तक की कम पढ़े लिखे,लेकिन अनुभवों के धनी बड़े-बुजुर्गों के मुख से भी, अनेकानेक बार, की "गरीबों में भगवान बसते है", परन्तु अपनी अनुभवहीनता की वजह से उसे कभी अपनी बुद्धि की कसौटी पर खरा नहीं पाया |

मैंने जब - जब अपनी चारो तरफ नजरें दौड़ाई, पाया अमीरों के द्वारा बनवाए गए आलिशान धर्मस्थलो को, देखा उनके द्वारा आयोजित भव्य धार्मिक आयोजनों को, मिले दान पुण्य के कार्यो में अपनी बढ -चढ़ कर ली गयी भागीदारियों के साथ, अर्थात कहने की जरुरत नहीं की मैं संतुष्ट नहीं हों पाया इस कथन से |

फिर जीवन, यू तो छोटी, लेकिन महत्वपूर्ण घटना से होकर गुजरी, और यह कथन मेरी सोच में अपनी सत्यता मजबूती से स्थापित कर गया |

हुआ कुछ यू की मेरी ग्रामीण पृष्टभूमि की वजह से, मैं अक्सर बिभिन्न आयोजनों में अपने गाँव के चक्कर लगता ही रहता हू | मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, वर्षो पहले मैं किसी पारिवारिक आयोजन में अपने गाँव गया हुआ था | उसी क्रम में मुझे अपने ग्रामीण बंधुओ के साथ जाने का अवसर मिला, वहाँ लगने वाले पशु मेले में, जहा पशुओ की खरीद फरोक्त होती थी और वही करीब से रु ब रु होने का अवसर मिला उस क्षेत्र से अच्छे - खासे संपन्न व्यक्ति से, जो अपने साथ अपनी बुढ़ापे की ओर अग्रसर गाय लेकर पहुचे थे | बातों - बातों में जानकारी हुई की वो अपनी गाय बेचने आये थे हाट में, क्युकी अब उसके भविष्य में बछड़े - दूध आदि देने की संभावना जाती रही थी |

मैंने उनसे जिज्ञासा बस पूछा की एक गाय जिसने अपने अच्छे समय में आपको कितना कुछ दिया होगा, उसके उत्तरार्ध काल में उसे यहाँ ले आये, ये अच्छी तरह से जानते हुए भी की उसके खरीदार कौन होंगे और उसका क्या हस्र करेंगे ?

उनका बेहिचक जबाब तैयार था, यह हमारे लिए अब अनुपयोगी है, हम इसे बेच रहें है, यह अर्थहीन है की इसके खरीदार कौन होंगे |

उत्तर आवक कर देने वाला था, जो एक गहन चिंतन का प्रश्न छोड़ गया की एक ऐसा वर्ग जो अपनी झूठी शान के लिए बड़े-बड़े आयोजनों में लाखों - करोडो खर्च करने की मादा रखता है वो इतना संवेदना शुन्य कैसे हों सकता है ?

खैर समय अपनी गति से बढ़ता गया और मुझे अवसर मिला एक अति दरिद्र (अर्थ से) परिवार के यहाँ रात बिताने का | परिवार के नाम पर अधेड़ पति- पत्नी ही थे, कोई संतान नहीं थी उनकी, पति भी दमा के मरीज | गरीबी इतनी की दरिद्रता के देवता भी पानी-पानी हों जाये | गाव में पशु धन रखने का प्रचलन है, जो आज भी कमोबेश दिखता है | घर की दशा वर्णन से परे थी, पशु धन के नाम पर एक बूढी गाय खड़ी देखी, जिसके बुढ़ापे एवं कमजोरी की वजह से लगभग शारीर के सारे रोये उड़ चुके थे और रोयों की जगह छोटे - छोटे जख्मो ने ले रखा था, जिनसे रह - रह कर गन्दा लहू रिस रहा था | मैंने देखा उस परिवार की गृह लक्ष्मी बड़ी तन्मयता से गर्म पानी से उस निरीह गाय के घाव को साफ़ कर रही थी, पता करने से मालूम हुआ वह गाय उन्होंने सात - आठ साल पहले खरीदी थी, जो पिछले 2 वर्षो से दूध देना बंद कर चुकी थी | पूछने पर की आपने इसे समय रहते बेच क्यु नहीं दिया, आज के दौर में कोई जिम्मेवारी पालता है भला, उन्होंने कहा इसने हम कई वर्षो तक अपने बछड़े, दूध, गोबर आदि से सेवा की है, क्या हमारा कर्त्तव्य नहीं बनता की हम इसके अंतिम समय में इसकी सेवा करें | इस तरह की सोच एक ऐसा दरिद्र परिवार का रखना जो खुद के जीवन यापन के लिए कड़े संघर्ष कर रहा हों, मेरे लिए अभूतपूर्व था |

उनके दरवाजे पर संध्या काल में पंहुचा था, इसलिए रात भी वही गुजारी, यथा संभव अथिति सत्कार किया उनलोगों ने, और मैं भोजन उपरांत निद्रा के लिए बिस्तर पर लेट गया, काफी देर तक बूढी गाय की सेवा और उनकी सोच मेरे लिए गंभीर चिंतन का विषय बनी रही और मुझे पता भी नहीं चल पाया की मैं कब निद्रा की आगोश मे चला गया | मेरी नीद खुली गृह लक्ष्मी के करुना से भरे रोने - धोने की आवाज से, मन बहुत घवरा गया किसी बड़े अनिष्ट की आशंका से, क्युकी उनके पति दमा के मरीज थे और दमा का अटैक उन्हें अक्सर आ जाया करता था, ऐसा सुन रखा था मैंने | मै वगैर समय गवाए घटना स्थल पर पंहुचा , देखा नेस्तेज लेटी गाय के सिरहाने वो महिला बैठी विलाप कर रही है, और आस पड़ोस के लोगों का ताता लगा हुआ है उन्हे ढाढ़स बंधाने के लिए, कुछ लोग आपस में बाते कर रहें थे, वेचारी बच्चे की तरह प्यार और देखभाल किया करती थी इसकी, कुछ लोग सांत्वना दे रहें थे “हर किसी को एक न एक दिन इस नश्वर शारीर को छोड़ कर जाना ही पड़ता है”, परन्तु आसू थे जो उस महिला के नेत्रों से थमने का नाम ही नहीं ले रहें थे | मै स्तब्द सा, आश्चर्य मिश्रित चिंतन में डूबा ये सब कुछ चुप - चाप खड़ा देखता रहा |

जैसे तैसे जमा लोगो ने और उनके स्वामी ने उन्हें समझाया, और फिर दौर शुरु हुआ मेरे लिए एक और आश्चर्य का | गाय के मृत होने की खबर किसी तरह से पशुओ के चमड़े और हड्डियो का व्यापार कर अपना पालन पोषण करने वाले निम्न वर्ग के लोगो तक पहुची तो वे लोभ वश आ पहुचे और उस मृत गाय के शारीर की मांग करने लगे, बदले में कुछ पैसे भी देने को तैयार थे, परन्तु उस दम्पति ने उनकी एक न सुनी और सोचनीय दरिद्रता के वावजूद भी न केवल अपने खेत में उसके शव को दफ़न करने तक का सारा खर्च उठाया वलिक पूरे दिन मृत शोक का भी पालन किया |

इस घटना ने मुझे भीतर तक झकझोर कर रख दिया, और ये कहने की जरुरत नहीं की आज मुझे ये स्वीकार करने में जरा भी हिचक नहीं होता की ईश्वर वाकई गरीबो के ह्रदय में बसते है | आज भी जब कभी यह घटना स्मरण आती है, आत्मीयता की वो भावना अभिभूत कर जाती है |